आगे बढने का डर
हर कोई चाहता है की उसका देश, राज्य, जिल्ला, गाँव आगे बड़े और विश्व में अपना नाम करें, लेकिन शायद गढ़वाली परिपक्व लोगों की सोच इस सबसे हट कर है, वे सोचते हैं की उनका गढ़वाल आगे जाने की बजाये पीछे जाए, क्यूंकि आगे उन्हें अपने गढ़वाल का भविष्य सुरक्षित नहीं दिख रहा हैं.
दिन प्रतिदिन बढती अनेको सुख के बावजूद वो खुश और संतुष्ट महसूस नहीं कर रहे हैं, आज घर घर मैं टीवी, डिश, सी डी प्लयेर सब हैं पर वो गाँव के एक घर मैं इकठा होकर किसी फिल्म या नाटक को देखने का मज़ा अलग ही था, आने वाली फिल्म और देखि गई फिल्म के बारे मैं पुरे हफ्ते चर्चा करने का अनुभव ही अलग था.
हर घर मैं गाय, बैल और भैंस हुआ करती थी, सड़कों पर चलने वाली एक एक बस का नंबर याद रहता था. गाँव के पास से गुजरने वाली दुल्हन को देखने के लिए लोगों का ताँता लग जाता था और उसके रोने की आवाज़ की दुरी से उसके सुशिल होने का अंदाज़ा लगाया जाता था. गाँव मैं होने वाली शादी का खुमार एक महीने पहले से शुरू हो जाता था, विडियो और नचाड़ का इंतज़ार बेसब्री से किया जाता था. होली दीवाली जैसे त्यौहार के समीप आने की ख़ुशी को समेटने के लिए दिलों मैं जगह कम पड जाया करती थी. कौथिग का जोश ख़तम होने का नाम नहीं लेता था. दुकानों मैं बिकने वाली सब्जी अक्सर सड जाया करती थी और खरीदने वाला शर्म महसूस करता था की लोग क्या कहेंगे की दुकान से सब्जी खरीदनी पड रही हैं.
सुख सुविधाओं के आकर्षण ने पलायन को ऐसी गति प्रदान की है की जिन बातों, चीज़ों से ख़ुशी मिला करती थी वो कहीं दूर छूट गयी है और दिल चाह रहा है की कांश हम आगे जाने की वजाय पीछे लौट पाते.
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