एक सार्थक सफर (Suffer)
रात्रि 11:30 पर जैसे ही देहरादून के लिए एक और बस मोहन नगर पर पहुंची कुछ लोग इस उम्मीद में उसकी तरफ लपके की शायद इस बस में कोई सीट खाली हो। लेकिन कंडक्टर बाबू ने स्पष्ट कर दिया की बस में सीट नहीं है खड़े खड़े जाना पड़ेगा, बिना कोई पल गवाये में बस में सबसे पीछे खड़ा था जिसमे पहले से ही चार व्यक्ति मेरी तरह खड़े होके सफर करने की ठान चुके थे । पहले की तीन बसों का भी यही हाल था। लेकिन मेरे मन में ये उम्मीद थी की शायद मेरठ या रुड़की के पास की कोई सवारी तो होगी ही जो उठेगी और तब में उसपे बैठ जाऊंगा और लगे हाथों अपनी शारीरिक क्षमता का पता भी चल जाएगा।
शायद मेरी तरह असंख्य लोग बिना किसी प्रायोजित कार्यक्रम के राखी के उपलक्ष्य में देहरादून जाने की ठान बैठे थे।
आईपॉड की धुनों पर मेरठ करीब आता चला गया और बस में बैठे यात्रियों में कोई हलचल न देख कर में पैरों में हलचल उत्पन्न हो गयी। किसी तरह दिलासा देकर की मेरठ की न सही शायद खतौली या उसके आस पास कोई उतरे लेकिन आशा की किरण सूरज न बन सकी।
भोजन अवकाश के लिए बस जब एक निर्धारित ढाबे पर पहुंची तो कंडक्टर से संपर्क करने पर सुचना मिली की केवल एक ही व्यक्ति है जो रुड़की उतरेगा और उसके लिए पहले ही एक व्यक्ति उस से संपर्क कर चूका है।
अब कोई चारा नहीं बचा था, सारी उम्मीदों को कंडक्टर की एक लाइन ने पेंसिल से हुयी गलती की तरह रबड़ से मिटा डाला। संगीत और बस के डंडे के सहारे ऊंघते हुए असंख्य मुद्रायें बनाते हुए पैरों को होने वाले कष्ट को जैसे तैसे भ्रमित करने की कोशिश में रुड़की तक पहुँच गये।
रुड़की में बस निर्धारित समय से अधिक रुकने पर पता चला की ढाबे पर दो व्यक्ति छूट गए है जो किसी दूसरी बस में बैठ कर आ रहे है और अब उनका इंतज़ार किया जा रहा है। इस इंतज़ार के समय को मेरे पैरों ने रुड़की बस अड्डे पर रखे एक तख्ते पर बैठ कर आराम करते हुए बेहतरीन ढंग से भुनाया। तक़रीबन 45 मिनट पश्चात् वो दोनों व्यक्ति आये और बस देहरादून के लिए अग्रसर हुयी। आगे की यात्रा बिना किसी खास दिक्कत के संपन्न हुई।
एक सार्थक सफर जो suffer करते हुए संजोय लिया गया है।
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