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Showing posts from 2010

एक मामूली घटना

स्वाभाव से में एक शांत और अंतर्मुखी व्यक्तित्व का मालिक हूँ, और किसी को कभी "ना" नहीं कह पाता हूँ अगर वो बात या काम मेरे पहुँच में हैं. अक्सर में मेरे आस पास होने वाली घटनाओ को देख कर उनके पीछे होने वाली वजह को समझने की कोशिश करता हूँ, जिनको शायद बहुत लोग या तो ध्यान ही नहीं देते हैं या घटित होते ही भूल जाते है या सारे दिन भर अपना मूड ख़राब कर के घूमते रहते हैं. मैं सुबह एक निर्धारित समय पर घर से ऑफिस के लिए निकलता हूँ और समय पर पहुँच जाता हूँ, अक्सर मैं सार्वजानिक वाहनों का उपयोग करता हूँ खासकर थ्री व्हीलर (ऑटो)! हमारे ऑफिस मैं अगर कोई भी लेट होता हैं तो उसका half day अंकित किया जाता है और कोई भी बहाना स्वीकार नहीं किया जाता . जिससे ऑफिस का टाइम मैनेजमेंट बना रहता है. आज जब मैं घर से ऑफिस के लिए निकला तो मेरे घर से निकल कर मेन रोड को जोड़ने वाली रोड को सार्वजनिक यातायात के लिए बंद कर दिया गया था केवल personal वाहन ही उस रोड से गुज़र सकते थे. लोकल रोड से मेन रोड तक की दूरी ३ किलो मीटर के लगभग हैं जिसमें मुझे कम से कम १५-२० मिनट का समय लगता और मे ऑफिस के लिए पक्का लेट हो जा

Incident

Lot’s of incidents took place in everybody’s life almost everyday and I am the person who observes such incidents and try to find out the reason behind the incident, in same cases people don’t notice or just forget or don’t bother to think about that or spoiled their mood for whole day. I am the person who don’t know how to speak “NO”, I hardly refuse any one if the thing is under my control or reach or I can do anything for him/her and I know that there are most of people are opposite me, they will refuse by one excuse or other. Today’s incident about which I thought let’s share with you and know what other people think about it and what is their way of thinking: - I used to commute my office by public transport and used most of time sharing Auto, due to some reason police has blocked the road from where I took auto to get another auto to reach my office, only personal vehicles are allowed to move on that particular road for today, when I reached on the road, saw that there is n

गढ़वाली भाषा

जब भी कोई Regional सांस्कृतिक कार्यक्रम होता हैं तो जितने भी उस region से related लोग आते हैं सब का आने का मकसद अलग अलग होता हैं , अधिकतर तो कार्यकर्म देखने आते हैं , बाकी मस्ती के लिए आते हैं . आयोज़को की तरफ से तो अपनी संसकिरिति के पार्टी शर्धा नज़र आती हैं . ऐसे कार्यक्रम वही आयोजित करते हैं जिनके दिल मैं अपने उत्तराखंड की संकृति के प्रति प्यार और स्नेह होता हैं और उसे अपने लोगों में बांटने की कोशिश करते है . यह इस बात का एक जीता जगता साबुत हैं की जो अपनी संस्कृति से प्यार करते हैं व्हो उसको बढाने की सोचते हैं किसी न किसी रूप मैं और जो लोग अपनी संस्कृति को पसंद करते हैं ऐसे कार्यकर्मों मैं बड चड़कर हिस्सा लेते हैं . अगर हम अपनी संकृति को बड़ा नहीं सकते तो कम से कम अपने अन्दर तो जिन्दा रख सकते हैं . हर चीज़ मैं फायदा नुक्सान और status symbol की तरह देखा जा रहा हैं , यहाँ तक की अपनी मात्र भाषा मैं भी …मुझे लगता हैं की कई ल

नजरिया

हर इंसान की एक अपनी एक सोच और नजरिया होता हैं किसी भी घटना और वस्तु को देखने का इसलिए यह जरूरी नहीं की जो एक इंसान कहे वह बात दुसरे इंसान को पसंद आये! जो भी मैं यहाँ पर व्यक्त कर रहा हूँ वह मेरा अपना नजरिया हैं और मैं जानता हूँ की हर कोई इस बात से सहमत नहीं होगा. जो मेरे नज़रिए को समझेगा वह शायद मेरी भावनाओं को समझ सकता हैं और जिनका नजरिया मेरे से अलग होगा वह शायद मेरी इन भावनाओं को किसी और रूप मैं ले सकते हैं.

गढ़वाल की विलुप्त होती रोनक

इंसान की भावनाए, चाहते अक्सर समय के अनुसार बदलती रहती हैं! ऐसा ही हाल शहर मैं और गाँव मैं रहने वाले गढ़वालियों का भी हैं. शहर मैं रहने वाले सोच रहे हैं की रिटायर होने के बाद गाँव मैं जायेंगे और वही पर अपनी जिंदगी अपने लोगों, पहाड़ो, खेतो के बीच बिताएंगे! वहीँ गाँव मैं रहने वाला गढ़वाली सोच रहा हैं की मैं कब इस गाँव को छोड़ कर शहर मैं जा कर बस जाऊं और इस गढ़वाल के मुश्किल और दूभर जिंदगी से छुटकारा पाके शहर की आराम दायक जिंदगी का लुत्फ़ उठाऊं. जिस मैं जीत गाँव मैं रहने वाले गढ़वाली की होती परतीत हैं, कुछ तो सफल हो जाते हैं तो बाद मैं गाँव मैं रिटायर हो के गाँव जाने का विचार करते हैं लेकिन कुछ गढ़वाली शहर मैं आकर फंस जाते हैं पर शर्म, असफलता से दुबारा घर जाना उचित नहीं समझते! आलम यह हो चूका हैं की अगर आप शहर मैं रहते हो और शादी या अन्य किसी समारोह के बिना गाँव जाते हो तो आप को वहां इतनी बोरियत महसूस होती है की आप दुसरे ही दिने वापस आने का प्रोग्राम बना लेते हो, इसके पीछे दिन परती दिन गाँव से होने वाला पलायन हैं, जिस से गाँव की रौनक एक तरह से समाप्त सी हो गयी हैं!

गढ़वाल की शादी

पिछले महीने मैं अपने दोस्त की शादी मैं गढ़वाल गया, बहुत मजे किये, गढ़वाल की शादी की बात ही कुछ और होती हैं. दो घटनाएँ जो थोडा हट के थी १. बारात मैं हम दो दोस्त अलग से ही थे दुल्हे के साथ, मैं दारु और अन्य नशीली चीजों का सेवन नहीं करता लेकिन मेरे साथ जो दोस्त था वह इनका सेवन करता हैं. बारात पहुचने पर और नास्ते के बाद सब पीने वाले अपना प्रोग्राम बना रहे थे, लेकिन मैं नहीं पीता था तो अलग सा हो गया और बारात मैं भी अपने आप को अकेला सा महसूस करने लगा क्यूंकि सब पीने वाले अपनी महफिले लगा चुके थे और उसके बाद जो गप्पे चल रही थी वह मेरे बर्दास्त के बहार थी. सबक: गढ़वाल की शादी मैं अगर आप नहीं पीते तो आपका जाना बेकार हैं. २. मैं बारात से जल्दी निकल गया था तो वापसी का रास्ता पैदल का था तो मैं अपनी मंजिल की तरफ चला जा रहा था, रास्ते मैं एक गाँव पड़ा और मैंने एक घर से पानी के लीये आग्रह किया उन्होंने पूछा कहाँ से आये हो और कहाँ जा रहे हो, बताने पर उन्होंने कहा की नहीं आप जो सामने दूसरा घर हैं वहां से पानी मांगो, मैं समझ गया की यह हरिजन का घर हैं. सबक: गाँव मैं जात पात का चलन शायद ही कभी मिट

नेगी जी और नए गायक

नेगी जी ने गढ़वाल की परिस्थितियों, वहां के लोगों की भावनाओं (ख़ुशी, गम, मिलना, बिछड़ना, याद, बचपन, जवानी, बुडापा इत्यादी) को जिस तरह शब्द देकर गीतों मैं पिरोया हैं वह अतुलनीय हैं, उनके जैसे इन्सान को पाकर गढ़वाल धन्य हैं. लेकिन जिस तरह से परिस्थितियां और भावनाए बदल रही हैं उसी तरह लोग भी बदल रहे हैं, लोगो की पसंद भी बदल रही हैं. जो लोग अन्य गायकों के गानों को पसंद कर रहे हैं उनके लीये तो नेगी जी और अन्य गायक बराबर हैं और भविष्य में नेगी जे के आभाव में तो यह नए गायक ही उनके लीये गढ़वाल के उच्चतम गायक बन जायेंगे. भविष्य में जब कल वाली परिस्थितियां और गायक नहीं रहेंगे तो जो भी नया गायक वर्तमान परिश्थितियों और भावनाओं को थोडा बहुत भी अपने गीतों में ढाल पायेगा वही भविष्य का गायक बन जाएगा. भले हम लता, किशोर, रफ़ी जैसे गायांकों को नहीं भुला सकते पर सोनू निगम, उदित नारायण, के. के., सुनिधि जैसे गायकों को भी नज़र अंदाज़ नहीं कर सकते.

आग और धुआं

बिना आग के तो धुआं नहीं उठता अगर आप गौर करेंगे तो पायेंगे की जितने भी परिवार गाँव मैं विषम परिस्तिथियों में जी रहे हैं उसमें कहीं न कहीं दारु का एक महतवपूर्ण योगदान हैं. गाँव मैं ज्यादातर फौजी रहते हैं और पेंसन आने के बाद अगर उन्होंने कोई काम धंधा कर लिया तो ठीक नहीं तो सिर्फ दारु पिने के लिए जीवित हैं, जिसकी वजह से उनके परिवार वालों को न जाने क्या क्या सेहन करना पड़ता हैं! रोज़गार गाँव मैं कम ही हैं और जो भी हैं वो मेहनत वाला होता हैं ऐसे मैं जब आदमी सारा दिन काम करता हैं और शाम को दारू पर पैसे बर्बाद कर देता हैं तो उसके असर को आप एक परिवार का सदस्य न होने पर भी महसूस कर सकते हैं, ऐसे अनेको उदाहरण आपको हर गाँव में मिल जायेंगे. दारु वैसे तो सभी की एक बहुत बड़ी कमजोरी हैं लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर गढ़वाल में इसके काफी भयंकर परिणाम देखने को मिलते हैं जिसके चलते परिवार का कोई सदस्य प्रगति नहीं कर पाता! अब तो आलम यह हो चूका हैं हे की १० साल का बच्चा भी दारू की गिरफ्त में आ चूका हे और व्यस्क होने पर और अपूर्ण शिक्षा और परिवार के भरण पोसन की जिमेदारी लेकर शहर मैं पहुँचता हैं तो दारु को

वास्तविकता का भविष्य

हम नेगी जी के गानों को पसंद करते हैं क्यूंकि उन्होनो गढ़वाल की उन परिस्थितयों, भावनाओं पर गाने लिखे हैं जिनको हम सब ने देखा और महसूस किया हैं इसलिएवो हम सब के चहेते हैं. गढ़वाल और गढ़वाल के लोग धीरे धीरे बदलते जा रहे हैं साथ मैं परिस्तिथियाँ और भावनायें भी बदल रही हैं, भविष्य मैं जब ऐसी कोई परिस्तिथि और भावनाए नहीं रहेगी जो नेगी जी ने अपने गानों में पिरो रखे हैं तो क्या नयी पीडी को लगेगा की नेगी जी के गानों का वास्तविकता से कोई वास्ता नहीं हैं.

गढ़वाल और जातपात

जातपात का गढ़वाल मैं अपना एक महत्व हैं जो की काफी मजबूत था और अभी भी हमारे बाप दादाओं मैं काफी हद तक अपनी जगह बनाये हुए हैं और हम इस बात को किसी भी रूप मैं ठुकरा नहीं सकते, धीरे धीरे जातपात का असर कम होता जा रहा हैं लेकिन यह शायद कभी ख़तम नहीं हो पायेगा, न केवल गढ़वाल मैं बल्कि पुरे भारतवर्ष मैं. गढ़वाल मैं अपने आप को ऊँची जात का होना और समझा जाना काफी महत्व रखता था और अभी भी काफी लोगों मैं यह भावना भरी हुयी हैं की हम ऊँची जात के हैं और दूसरा नीची जात का, रिश्ते भी जाती के आधार पर बनाये जाते हैं, क्षत्रियों और ब्राह्मणों मैं ही आपस मैं जब जातपात का भेदभाव चलता हैं तो हरिज़नो के साथ यह अपनी उच्चतम सीमा पर होता हैं. आप को क्या लगता हैं की क्या जातपात गढ़वाल से समाप्त हो पायेगा?

आगे बढने का डर

हर कोई चाहता है की उसका देश, राज्य, जिल्ला, गाँव आगे बड़े और विश्व में अपना नाम करें, लेकिन शायद गढ़वाली परिपक्व लोगों की सोच इस सबसे हट कर है, वे सोचते हैं की उनका गढ़वाल आगे जाने की बजाये पीछे जाए, क्यूंकि आगे उन्हें अपने गढ़वाल का भविष्य सुरक्षित नहीं दिख रहा हैं. दिन प्रतिदिन बढती अनेको सुख के बावजूद वो खुश और संतुष्ट महसूस नहीं कर रहे हैं, आज घर घर मैं टीवी, डिश, सी डी प्लयेर सब हैं पर वो गाँव के एक घर मैं इकठा होकर किसी फिल्म या नाटक को देखने का मज़ा अलग ही था, आने वाली फिल्म और देखि गई फिल्म के बारे मैं पुरे हफ्ते चर्चा करने का अनुभव ही अलग था. हर घर मैं गाय, बैल और भैंस हुआ करती थी, सड़कों पर चलने वाली एक एक बस का नंबर याद रहता था. गाँव के पास से गुजरने वाली दुल्हन को देखने के लिए लोगों का ताँता लग जाता था और उसके रोने की आवाज़ की दुरी से उसके सुशिल होने का अंदाज़ा लगाया जाता था. गाँव मैं होने वाली शादी का खुमार एक महीने पहले से शुरू हो जाता था, विडियो और नचाड़ का इंतज़ार बेसब्री से किया जाता था. होली दीवाली जैसे त्यौहार के समीप आने की ख़ुशी को समेटने के लिए दिलों मैं जगह कम पड ज

बलि प्रथा

बलि प्रथा को मैं भी उचित नहीं समझता पर आप इस से इंकार नहीं कर सकते की इसका कोई औचित्य नहीं हैं. गाँव में कई बार जागर मैं जाकर मैंने देवी देवताओं या भूतों को बलि की मांग करते सुना हैं, तो क्या जागर मैं नाचने वाले सब पाखंडी होते हैं जो बलि की मांग करते हैं? बलि की मांग होने पर और न देने पर परिवार मैं होने वाली किसी भी घटना को आशंका की दृष्टि से देखा जाएगा. बलि दिए जाने के मामले में कभी किसी भी देवी देवता ने यह नहीं कहा की मुझे बलि नहीं चाहिए थी, लेकिन यह जरूर कहा हैं की पूजा उचित तरीके न होने के कारन आपका कार्य संपन्न नहीं हुआ.

गढ़वाल मैं उत्पन्न होती समस्याएँ

जैसे जैसे गढ़वाल उन्नति कर रहा है (इसे आप अवन्नती भी कह सकते है) दिन प्रतिदिन नयी नयी समस्याएँ उत्पन्न हो रही है, जो आगे चल कर एक भयंकर रूप धारण कर सकती है, जैसे की : जल संकट, घरेलु सब्जियों का अभाव, वनों मैं वृक्षों का अभाव, पशुओं के चारे का अभाव, खेती से उत्पन्न होने वाले अनाज में निरंतर गिरावट, ईधन के लिये लकडियो का अभाव उपरोक्त सभी ऐसी समस्याएँ हैं जिनके बिना गढ़वाल अपना वजूद खो देगा। अधिकतर गाँव मैं जल संकट चरम सीमा पर पहुँच चूका हैं, छोटी मोटी नदियाँ तो अब केवल बरसात के मौसम मैं ही नज़र आती हैं. (बिन पानी सब सून). घरों मैं पशुओं के चारे के अभाव मैं लोगों ने पशुपालन धीरे धीरे बंद कर दिया हैं, भैंसे पालना तो हाथी पालने जैसे होता जा रहा हैं केवल चारे के अभाव के कारण। घरों मैं ईधन के लिये लकड़ियों के अभाव के कारण गैस का प्रचलन बढता ही जा रहा हैं जिससे चूल्हे की रोटी का स्वाद विलुप्त की कगार तक पहुचने वाला है। जलवायु परिवर्तन भी काफी हद तक महानगरों के सामान होता जा रहा हैं। सुधार तभी संभव है जब हमें कमियों के पता होगा।

कुछ लहरें जल्दी शांत नहीं होती...

गढ़वाल की शैतानी आपदाओं जैसे अहंकार, घात, नज़र, धुल, हवा इत्यादि से हर गढ़वाली त्रस्त हैं, किसी के बुरा चाहने से और बुरा करने से बुरा तो हो जाता हैं पर शायद भला चाहने या करने से ऐसा कुछ नहीं होता. वास्तविकता क्या है इस से तो शायद ही कोई अवगत होगा लेकिन मानने से कोई इंकार नहीं करेगा और सचाई कोई जानने किस कोशिश नहीं करता की आखिर यह सब क्या होता हैं और कैसे असर करता हैं. रीति चली आ रही हैं और सब उसका पालन कर रहे हैं, लोग त्रस्त हैं और त्रस्त ही रहेंगे शायद, समाधान खोजने वाले तो नहीं हैं पर इलाज का दावा करने वालों की भी कमी नहीं हैं, अनेक प्रकार के बक्या/बाबा गढ़वाल मैं मौजूद हैं और लगे हुए हैं ऐसी आपदाओं से लोगों को मुक्ति देने पर. आपको क्या लगता हैं की यह एक ऐसा मुद्दा हैं जिसके ऊपर हम सोच नहीं सकते या सोचना नहीं चाहते या फिर कितना भी सोच लो इन बातों का कोई समाधान नहीं हैं, समाज कितना भी बदल जाए पर हम इन चीजों को नहीं बदल सकते, यह आदि से चल रहा हैं और अनंत तक चलता रहेगा, यह चीजें सही गलत का भेद नहीं जानती. टोटल confusion है, हजारो सवाल उठते हैं, पर शायद जवाब मुश्किल हैं या शायद कुछ सवाल

महानगर और गढ़वाल

कल अपने दोस्त के साथ उसकी शादी के कार्ड बांटने निकला तो कई नए गढ़वाली लोगों से परिचय हुआ जो की काफी समय से दिल्ली और आसपास के छेत्रों मैं बसे हुए हैं, गर्मी के ऊपर और दिल्ली के मौसम के साथ कई पहलुओं पर चर्चा हुयी और शहर के साथ गढ़वाल की तुलना की गयी, जिसमें कुछ लोगो ने तो निश्चित कर रखा हैं की रिटायर होते ही वो दुबारा अपने गाँव मैं जा कर बस जायेंगे और इस महानगर के नरकीय माहोल से छुट्टी पा के अपने स्वर्गनुमा गढ़वाल मैं रहेंगे और बाकी की जिंदगी वही बिताएंगे. दिन बा दिन जिस तरह गढ़वाल का माहोल बदलता जा रहा हैं, लोगों मैं आपसी मेलमिलाप घटता जा रहा है हैं और गढ़वाल अपनी मान्यताओं को जिस तरह खोने को आतुर हैं, ऐसी मैं क्या लगता हैं, गढ़वाल का माहोल क्या आज भी पहले की तरह अनुकूल हैं, क्या गढ़वाल मैं दुबारा बसने का उनका निर्णय क्या सही साबित होगा?