सुनने की कला
बोलना हर कोई जानता है चाहे
अच्छा बोलना हो या बुरा, मतलब का हो या बकवास, सराहना हो या आलोचना, मतलब बोलने के
लिए सब के पास कुछ न कुछ होता ही है अगर नहीं होता है तो कोई सुनने वाला और वो भी
ऐसा सुनने वाला जो की सब कुछ समझे और फिर भी सुने और सिर्फ सुने l
सुनने वालों की कमी इसलिए
है की सुनने वाले की कोई कीमत ही नहीं समझी जाती, जिसको देखो बोलने के लिए हमेशा
आतुर रहता है और सुनने वाला जवाब देने के लिए हमेशा उतावला, जब दोनों तरफ केवल
बोलने या बढकर जवाब देने की मंशा रहेगी तो बात का हल निकलने की जगह बात और जटिल
रूप धारण कर लेगी l
सुनने वालों को कमजोर समझा
जाना भी एक तरह का भ्रम है लेकिन शायद सुनने की क्षमता या ताकत बहुत कम लोगों में बची
है, वो क्या ताक़तवर जो दुसरे की बात सुनते ही अपने दिमाग और जबान को नियंत्रण न कर
सके और बदले के लिए उतावला हो जाए l
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