स्थिरता

इस दुनिया में स्थिर कुछ भी नही, आज जो हमें सही लगता है कुछ समय पशचात वही गलत लगने लग जाता है। ऐसे मे जब हम अपनी जुबान का मान खुद ही नही रख सकते तो दूसरों से कैसे उम्मीद रख सकते है। समय और परिस्तिथियाँ आपके अपने से किये गए वादों को ही बदल देती है। एक नज़र...

बचपन में जो करेला हमें फूटी आंख नही सुहाता था और भगवान से शिकायत थी की क्या सोच कर इसे सब्ज़ी बनाया, आज वही करेला हमारा प्रिय है।

दूरदर्शन के समय से जिन समाचारों ने मनोरंजन में खलनायक की भूमिका निभाई, आज टीवी सिर्फ उन्हीं समाचारों के लिए देखा जाता है।

ब्रश करना, नहाना कपड़े बदलना इत्यादि नित्यक्रम के ये कार्य हमेशा से फालतू के कार्य लगते थे, आशिक़ी का भूत चढ़ा नही की वही सब कुछ  एक दिन मे दो-दो करने पर भी कम लगता है।

जिस तीव्र गति से वाहन चलाने में रोमांच महसूस होता है, आज वही तीव्रता मौत का निमंत्रण लगता है।

जिन गानों पर कभी पाँव थिरकते थे, आज वही गाने फूहड़ लगते है और जिन पुराने गानो को सुन कर कान पक जाते थे, आज वही गाने असली संगीत प्रतीत होता है।

जो स्कूल हमेशा से बोझ महसूस होता था, वही आज अविस्मरणीय यादों का पिटारा है।

जिन मार-धाड़ की फिल्मों से रोंगटे खड़े हो जाते थे, आज वही मार-धाड़ फालतू का और समाज को बिगड़ने का जरिया लगता है।

कदम कदम पर हमारी अस्थिरता है और चाहत स्थिरता की है।

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