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Showing posts from 2018

आकर्षण

कॉलोनी के भीतर सब थोड़ा बहुत एक दूसरे को जानते ही है खासकर अपने क्षेत्र के लोगों को। सिर्फ इस बात की जानकारी होना की वो जो कहीं उस ब्लॉक मे रहती है, वो पहाड़ी है और मेरा भी पहाड़ी होने के नाते हम दोनो का एक अनजाना संबंध तो बन ही जाता है। इसी अनजाने बंधन का फायदा उठाते हुए मेरे दोस्त (मन्नू) ने मुझे कहा की उस से (मधु) जाके कह दे की "मन्नू तुझे आई लव यू कह रहा है" । बचपन की मस्ती मे कूदते फांदते उस तक पहुंचे और बिना किसी भावनाओं के सूचना को "कॉपी पेस्ट" कर दिया। उसके चेहरे पर एक मुस्कान उभरी और बिना किसी जवाब के वो आगे बढ़ गयी। कूदता फांदता वापस आया तो मन्नू ने उत्तर की अपेक्षा से देखा, मैंने बोल दिया की मैंने तो उसे बता दिया और वो मुस्कुरा कर चली गयी। अब खेलते कूदते जब भी वो नज़र आये में उससे पूछ बैठता "मन्नू जवाब मांग रहा था", उत्तर मे वही मुस्कान प्राप्त होती। इसी साल आठवीं कक्षा पास करी और नई कक्षा के साथ स्कूल भी नया मिला, जहाँ कॉलोनी का कोई दोस्त नही था, घरवालों ने बिगड़ने से बचने के लिए ऐसे स्कूल मे डाला जहाँ पढ़ाई अच्छी थी और प्रव

ठग

सड़क किनारे बाइक को धक्का ले जाते हुए युवक को मैंने दूर से ही देख लिया था, उत्सुकतावश उसकी तरफ देखा तो उसने रुकने का इशारा किया। अपनी बाइक रोक कर संभावना से पूछा कि "क्या पेट्रोल खत्म हो गया है"? अपेक्षित जवाब हाँ के साथ कारण भी स्वतः बताया जाने लगा कि किसी ने मॉल की पार्किंग मे बाइक से पेट्रोल निकाल लिया और अब उसके पास पेट्रोल भरवाने के रुपये भी नही है। मेरे पास ठीक-ठाक पेट्रोल था तो मैंने कहा कुछ बोत्तल वगैरह हो तो में कुछ दे देता हूँ। लेकिन आस-पास नज़रें दौड़ाने के बावजूद कुछ न मिला तो उसने कहा कि कुछ रुपये मिल जाते तो वो कुछ दूर खींच के ले जाता और फिर पंप से भरवा लेता। आये दिन होने वाली ठगी की घटनाओं को ध्यान मे रखते हुए मैंने सरलता से बोला कि "आजकल लोग झूट बोलकर रुपये ठग लेते है तो इसलिए में रुपये नही दे पाऊंगा"। मेरी इस बात पर युवक के स्वर मे कटुता आ गयी और बोला "अगर आपको मुझ पर विशवास नही है और लगता है कि में ठग हूँ तो मुझे आपके रुपये नही चाहिए" मैंने कहा "में सिर्फ शंका जाहिर कर रहा हूँ क्योंकि आप मेरे लिए अनजान हो" "अगर आपको में

Land of Zombies

The world around us is full of zombies. The moment they realise that you have different approach towards life they will bit you hard and put you in a situation where you are left with only two options, either become like one of them or remain different to come across more such zombies. A similar two way zone is before me and mind and  heart are fighting hard to influence me, where heart says "Don't listen to mind, you are what you are" and mind says "To survive among these zombies you have to become like one else you will be destroyed by them" A tough decision to make.

MP3 (भाग - 3)

सोमवार का सूर्य अपने साथ अनगिनत ललिमाओं और आकांक्षाओं के साथ उदय हुआ। समय से काफी पहले स्कूल पहुँचे, हिम्मत नही हुई की रास्ते में जाकर देखें की सुमन आ रही है की नही। वो आई और प्रार्थना लाइन मे उसकी एक झलक दिखी और किसी तरह का कोई भाव नही दिख। मिश्रित भाव हमारे दिल-दिमागों मे कौंधे। पहला पीरियड शुरू हुआ और हम तीनो परिणाम की आरज़ू मे खुद को नार्मल रखने की कोशिशों से जूझ रहे थे। कुछ देर बाद देखा की सुमन स्कूल की दहशत कही जाने वाली गुप्ता मैडम के साथ प्रिंसिपल के कक्ष की तरफ बढ़ रही थी। अनहोनी की आशंका से हम तीनों का दिल डूबा जा रहा था, पर एक उम्मीद की किरण ये भी थी की शायद किसी अन्य कार्य हेतु वो प्रिंसिपल कक्ष में गए हो। जल्द ही एक बच्चा हमारी क्लास में आया और हम तीनों को प्रिंसिपल कक्ष में बुलावे की बात कह गया। शरीर सुन्न और शरीर में उगे हुए बाल और भविष्य में उगने वाले बाल भी त्वचा के अंदर खड़े हो गए। आस-पास की जगह और लोग किसी विचित्र ग्रह से महसूस होने लगे, शरीर के मसानों ने शर्त लगा कर पसीना उगलना शुरू कर दिया। कुछ क्षणों मे हमने खुद को प्रिंसिपल कक्ष में पाया, जहाँ एक औ

MP3 (भाग - 2)

बात कायदे के साथ-साथ प्रकृति के संतुलन को ठीक करने की भी थी। हमारे पास तो कोई विकल्प था नहीं तो काफी सोच विचार के बाद ये तय हुआ की एक पत्र लिखा जाए और उस से पुछा जाए की आप किस को पसंद करते हो। निर्णय तो ले लिया गया पर अब पत्र कैसे लिखा जाता है ये समस्या खड़ी हो गई। सुनील ने मोर्चा संभाला और बोला तेरी लिखाई अच्छी है तो लिखेगा तू और लिखना क्या है ये में बताऊंगा बाकी पत्र को सुमन तक पहुचाने का काम धर्मेन्द्र का होगा। फैसला हो गया और पत्र लिखा गया जो कुछ इस तरह था की.... प्यारी सुमन,  आप हमको बहुत अच्छी लगती हो और आपकी मुस्कान तो उस से भी ज्यादा। हम तीनो को आप से प्यार हो गया है और हमें लगता है की आप भी हमसे प्यार करती हो, लेकिन हमें ये नहीं पता की आप हम में से ज्यादा प्यार किस से करती हो। अगर आप हमें बता दोगी की आप हम से किसे ज्यादा प्यार करती हो बाकी के दो बीच में से हट जायेंगे। धन्यवाद! आपके प्रेमी (नाम नही लिखा था लेकिन सुनील ने अपनी कला का परिचय देते हुए एक दिल बनाया और उसको आर-पार करता हुआ एक तीर भी बना डाला।) पत्र लिखने के बाद तय हुआ की धर्मेंद्र स

MP3 (भाग - 1)

दिल्ली के सरकारी स्कूल मे सातवीं कक्षा के B सेक्शन मे चौथा पीरियड चल रहा था और उसी कक्षा की आखिरी सीट पर बैठे हुए हम तीन दोस्त (सुनील, धर्मेंद्र और मैं) बड़े ही ध्यान से कक्षा मे चल रहे विषय से बहुत दूर हाल ही मे रिलीज़ हुई 'हम' फ़िल्म में अमिताभ बच्चन द्वारा बोले गए डायलॉग "दुनिया में दो तरह के लोग होते है" की विवेचना में मग्न थे। तभी नज़र सातवी A की कक्षा की तरफ गयी और पाया की "सुमन" हमारी तरफ देखकर मुस्कुरा रही है। पूछो या न पूछो बता देता हूँ की "सुमन" पूरे स्कूल की क्रश थी और "विशाल" उस पर बुरी तरह मोहित था, लेकिन बहुत कोशिश करने के बाद भी जब दाल नही गली तो फिर उसने अपनी कोशिशों को विराम देकर इस रिश्ते को भाई-बहन का रूप देकर खत्म कर दिया। जी हाँ वही "सुमन" हमारी तरफ देखकर मुस्कुरा रही थी, जिसकी हमने कल्पना भी नही की थी और इसी के चलते उसकी इस हरकत को हमने बहुत ही साधारण रूप में लिया। लेकिन जब वही मुस्कुराहट हमे लंच के बाद दुबारा देखने को मिली, दूसरे दिन भी और तीसरे दिन भी तो हम तीनो को कुछ-कुछ होने लगा। हम तीनो

गूँगा समाज

रोजाना की तरह पेट्रोल भरवाने के लिए पंप पर लाइन में लगा और अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगा, तीन मोटरसाइकिल मेरे से पहले थी और मेरा चौथा नंबर। लाइन वालों मे से पेट्रोल एक मोटरसाइकिल का भरा जाता तो साइड से आकर दो भरवा के चले जाते, जब तक मेरा नंबर आता तब तक साइड से आकर पाँच लोग पेट्रोल भरवा चुके थे और छठा भरवा रहा था। अटेंडेंट को बोला की जो साइड से आते है उनको पेट्रोल क्यों देते हो, तो वो बोला की "अब हम किस किस से झगड़ा करे, हर कोई लड़ने के लिए तैयार होता है, इसलिए हमने बोलना ही बंद कर दिया, जिसको दिक्कत होगी खुद बोलेगा"। मैंने कहा की "फिर तो लाइन मे लगने का कोई फायदा ही नही है, जब आपने सबको पेट्रोल दे देना है, चाहे वो लाइन मे हो या नही। अगली बार से मे भी लाइन में नही लगूँगा" कल फिर उसी पेट्रोल पंप पर पहुँचा, चार लोग लाइन पर थे, हिचकते हुए साइड से लाकर मोटरसाइकिल सबसे आगे वाले के साथ खड़ी कर दी और तुरंत ही पेट्रोल भर दिया गया। न तो अटेंडेंट ने कुछ बोला न ही लाइन में लगे लोगों ने। सब कुछ सामान्य रूप से निपट जाने के बावजूद में खुद को असामान्य महसूस कर रहा था, मेरी अंतर

अपनत्व

- वहाँ पर से बस में बैठ जाना, 30 रुपये किराया लगेगा। - कंडक्टर को बोल देना की मुझे उस मोड़ पर उतार देना, वहां से रास्ता छोटा है। - वहाँ उतरकर रिक्शा कर लेना उसको बोलना की इस जगह पर जाना है और हाँ वहाँ तक के 10 रुपये लगते है, नही तो रिक्शे वाले 15-20 ले लेते है। - दरवाज़े पर पहुंच कर कोहनी से घंटी बजाना, क्योंकि हाथों में तो सामान होगा न !

बस तुम आ जाओ।

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Compulsion

The man settled himself in the hotel chair with his family to give a soothing and different experience to the taste buds. After deciding food items from the menu with the consent of his family, he respectfully called the waiter and on arrival of the waiter asked him to serve the selected food items. The food was served and everyone was enjoying the meal, in between, he realised that more water is needed, he again called the waiter respectfully and said he needed more drinking water, the waiter left to fetch the water. 5 minutes passed and he observed that the same waiter is serving to other customers, he indicated to the waiter for water and waiter nodded his head in agreement. Another 5 minutes passed and he found that waiter is serving to another customer, he again indicated to the waiter and the waiter shook his head again. He realised that his politeness & respect is being taken granted, soon waiter appeared with a different thing for another customer, th

प्रयास

लाल बत्ती की दूसरी तरफ रुके हरे-पिले रंग के शेयरिंग ऑटो को निहारते हुए मन ही मन वो एक सीट मिल पाने की उम्मीद के साथ बार बार अपने फ़ोन मे बढ़ते और ऑफिस के लिए कम होते हुए समय को देख रहा था। जैसे ही लाल रंग फिसल कर हरे रंग पर रुका मैंने भी अपनी बाइक को आगे बढ़ा दिया, उस युवक ने अपना हाथ रुकने के लिए दिया जो की मेरे पीछे आते ऑटो के लिए था लेकिन मैंने अपनी बाइक उसके सामने रोक दी, नज़रे मिली उसने पूछा सेक्टर 62 नोएडा तक छोड़ दोगे? मैंने कहा चलो। कुछ आगे चल कर पूछा की नोएडा में असल में कहाँ जाना है तो जवाब "फोर्टिस हॉस्पिटल" मिला। हालाँकि भारी यातायात की वजह से मैंने उस रास्ते से चलना बंद कर दिया था और एक थोड़ा लंबा लेकिन कम ट्रेफिक वाला रास्ता ढूँढ लिया था। उसके गंतव्य को जान कर सोचा चलो इसी बहाने पुराने रास्ते को एक बार फिर निहार लिया जाए। फोर्टिस हॉस्पिटल पर पहुँच कर सेवा स्वरूप धन्यवाद अर्जित किया आगे निकल चले। रोमांचक बात ये रही की, उसको पता है की उसने रुकने के लिए मुझे हाथ नही दिया था और मुझे भी पता है की उसने मुझे रोकने के लिए हाथ नही दिया था लेकिन उसको ये नही पता की ये बात मुझ

स्थिरता

इस दुनिया में स्थिर कुछ भी नही, आज जो हमें सही लगता है कुछ समय पशचात वही गलत लगने लग जाता है। ऐसे मे जब हम अपनी जुबान का मान खुद ही नही रख सकते तो दूसरों से कैसे उम्मीद रख सकते है। समय और परिस्तिथियाँ आपके अपने से किये गए वादों को ही बदल देती है। एक नज़र... बचपन में जो करेला हमें फूटी आंख नही सुहाता था और भगवान से शिकायत थी की क्या सोच कर इसे सब्ज़ी बनाया, आज वही करेला हमारा प्रिय है। दूरदर्शन के समय से जिन समाचारों ने मनोरंजन में खलनायक की भूमिका निभाई, आज टीवी सिर्फ उन्हीं समाचारों के लिए देखा जाता है। ब्रश करना, नहाना कपड़े बदलना इत्यादि नित्यक्रम के ये कार्य हमेशा से फालतू के कार्य लगते थे, आशिक़ी का भूत चढ़ा नही की वही सब कुछ  एक दिन मे दो-दो करने पर भी कम लगता है। जिस तीव्र गति से वाहन चलाने में रोमांच महसूस होता है, आज वही तीव्रता मौत का निमंत्रण लगता है। जिन गानों पर कभी पाँव थिरकते थे, आज वही गाने फूहड़ लगते है और जिन पुराने गानो को सुन कर कान पक जाते थे, आज वही गाने असली संगीत प्रतीत होता है। जो स्कूल हमेशा से बोझ महसूस होता था, वही आज अविस्मरणीय यादों का पिटारा है। जिन मार-

अजकाले की नोनी

क्या आप लुखूँ थे पता च की अजकाले नोनियू दगड़ क्या परेशानी च? तुमथे एक नोनी बजार म दिख्या। तुमुल वीन्थे मुंड बटे की खुटा तलक दयाख। तुमुल वीन्की छाती दयाख, तुमथे मस्त लगिन। तुमुल वीन्का पैथर दयाख, तुमथे मज़ा आ ग्या। तुमुल वीन्की कमर दयाख, तुमथे नशा चेड़ गया। व जरा उन्दू ख़ूणे झुक, तुमुल कनख़यूल वीन्का भीतर त दयाख। राति स्वीणो म तुमुल व अपणा बिस्तरम दयाख। क़तगे बणी का पोजम तुमुल वीन्का दगड़ अपथे दयाख। तुमरी भूख शांत हवेगे। अब तुम वीन्थे भूली ग्यो। हेंका दिन, तुमरी भुल्ली अर तुमरी ब्वारी गेनी वे बज़ार म। तुम त निछाई, पर तुमरी जगा आज क्वी और छाई। वेल भी वी दयाख, ब्याली जु तुमुल दयाख छाई। क्या याद च तुमथे की ब्याली तुमुल क्या दयाख छाई? और जण चाणा छौ, अजकाले की नोनियू दगड़ क्या परेशानी च?

आशिफ़ा

तो आशिफ़ा सबकी बेटी थी और उसके साथ हुए अत्याचार से सब आहत है, आपकी सोच और भावना बिल्कुल जायज़ है। लेकिन इस पुरुष प्रधान देश मे बलात्कारी किसी का बेटा नही है क्या...? वो किसी मशीन से उत्पन्न हुआ पुरुष मात्र का शरीर भर है क्या...? सवाल ये उठता है कि कसूरवार कौन है,  वो बलात्कारी जिसने ऐसा घृणित कार्य किया या उसका परिवार जिसने संस्कारों के रूप में उसके अवचेतन मन मे गलत कार्यों का सही से डर नही बिठाया, जिससे  उसके अंदर ऐसा अपराध करने की सोच उत्पन्न हुई, या फिर हमारा समाज जिसने उसके अंदर ऐसी लालसा उत्पन्न कर दी कि उसको इस अपराध के पीछे के परिणामों को भी पूर्णतया नज़रअंदाज़ कर दिया। अगर इसके पीछे वह स्वयं या उसके संस्कार है तो समाज के द्वारा उठाये जाने वाली आवाज़ जायज़ है लेकिन अगर इसमें समाज का योगदान भी सम्मिलित है तो समाज को कोई हक नही की वो सिर्फ बलात्कारी की सज़ा की मांग करे, समाज की मांग उन सब क्रियाकलापो को बंद करने की मांग दुगुनी आवाज़ के साथ उठाने की जरूरत है जो ऐसी घटनाओं की जन्मदाता है। वरना ऐसी घटनाओं में दोषी की सज़ा से ही सार्थकता सिद्ध नही हो जाती बल्कि ऐसी घटनाओं क

प्रकृति

भविष्य के लिए क्या जरूरी है? स्वास्थ्य। और स्वास्थ्य के लिए? शुद्ध हवा, जल, भोजन। ये सब कहाँ के मिलता है? प्रकृति से। प्रकृति के लिए आप क्या रहे हो? कुछ नही। तो जब ये प्रकृति ही नही रहेगी तो जो योजना आपने अपने बच्चों के भविष्य के लिए बनाई है वो कैसे पूरी होगी? चलो मान लेते है कि एक पीढ़ी तो प्रकृति और झेल ही लेगी, लेकिन करेंगे तो प्रकृति के लिए आपके बच्चे भी कुछ नही, तो फिर आपके नातियों के भविष्य का क्या होगा? आपकी आने वाली पीढ़ी का क्या होगा? चलो ठीक है, माना की आप के पास समय नही की आप प्रकृति को संचित रखने मे समय दे पाओ, लेकिन उसको जिस से नुकसान पहुंच रहा है वो तो बंद कर सकते हो। पॉलीथीन, प्रदूषण, कचरा, केमिकल, बिजली की बजट...इत्यादि। अच्छा!! तो ये भी नही हो पायेगा, चलो ऐसा कोई तो होगा जो प्रकृति को संचित रखना चाहता है और उसको बढ़ाना चाहता है। तो उसका साथ दो, उन लोगों को सपोर्ट करो जो प्रकृति के लिए योजनायें बना रहे है। इन नेताओं में से छांटो उन्हें जो प्रकृति की चिंता करता है। जात-पात, धर्म, आरक्षण जैसी चीज़ों को सपोर्ट करने से बेहतर है उन कामों और

आस्था

हवलदार जगजीवन की भगवान के ऊपर बहुत आस्था थी और उनके जीवन मे होने वाली सारी अच्छी घटनाओं का सारा श्रेय भगवान को ही जाता। जब भी मौका मिलता वो मंदिरों के दर्शन और पूजा पाठ में समय व्यतीत करते। जिस दिन हवलदार जगजीवन को बीवी के गर्भवती होने की सूचना मिली उसी दिन होने वाली संतान के भविष्य की जानकारी हेतु वो पुजारी जी से जाके मिले। दिनों की गणना करके पंडित जी ने बच्चे के जन्मदिन का अनुमान लगाया और जगजीवन बाबू को कहा कि अमुक तारीख को अगर बच्चा पैदा होता है तो परिवार खुशियों से भर जाएगा, ये दिन बच्चे व पूरे परिवार के लिए बहुत भाग्यशाली है। आनेवाली खुशियों की राह तकते तकते आखिर वो दिन आने वाला था जिस दिन को बच्चे के जन्म को पण्डितजी ने पूरे परिवार के लिए भाग्यशाली बताया था।  लेकिन शायद जगजीवन बाबू के परिवार की किस्मत में कुछ और ही था, डॉक्टर के अनुसार बच्चे का जन्म ठीक पंडितजी के बताए दिन के अगले दिन का तय किया गया। भविष्य की चिंताओं से बचने के लिए जगजीवन बाबू ने कड़ा फैसला लिया और तय किया कि बच्चे का जन्म आपरेशन से उसी दिन किया जाएगा जिस दिन पंडितजी ने बताया है। अंधविश्वासी और पुराने विचारों

पार्टी समर्थक

मेरे इर्द गिर्द जितने भी लोग है चाहे वो वास्तविक जिंदगी में हो या फेसबुक, व्हाट्सएप्प जैसी वर्चुअल दुनिया मे, लगभग सबके सब किसी न किसी राजनैतिक पार्टी के समर्थक है। ज्यादातर लोगों को उस राजनैतिक पार्टी से किसी भी तरह का परोक्ष या अपरोक्ष रूप मे कोई फायदा नही है, लेकिन फिर भी उन्हें लगता है कि शायद जीने के लिए किसी पार्टी का समर्थक होना नितांत जरूरी है वरना वो किस बात को लेकर दोस्तों, रिश्तेदारों व जानकारों से नोक झोंक करेंगे। कोई तो पेंदा लेकर उनको चलना चाहिए, बीने खूंटे की गाय बन के जीवन निरथर्क है। फेसबुक और व्हाट्सएप्प की दुनिया मे बिना किसी राजनैतिक पार्टी के समर्थक बिना घुसना मानो मरुस्थल में जाने के बराबर हो। कुछ दिन पहले हुए उत्तर प्रदेश के उप चुनाव के बाद, नतीजे से पहले की रात काटना पाठक जी के लिए दूभर हो गया, बेचैनी और चिंता का आलम ये की रगो से पानी संभला न जाये और पसीना किसी फूटी टंकी से रिस्ता जाए। इसका कारण वो एक राजनैतिक पार्टी के समर्थक है और कल आने वाले परिणाम पर उनकी नाक की आन बान और शान टिकी थी। हालांकि परोक्ष या अपरोक्ष रूप में उनका पार्टी से कोई लेन

धुंधली यादें

हमारी क्रिकेट मंडली बेसब्री से उस लड़के का इंतज़ार कर रही थी जो अपने पापा की परचून की दुकान में उनका हाथ बंटा रहा था। हमारे द्वारा किये गए जल्दी चलने के कई गुप्त इशारों के बाद खेलने की ललक और सही मौके को देखकर उसने हिम्मत जुटा कर अपने पापा से कहा "पाप में बेट बॉल खेलने जाऊँ?" कड़वे शब्दों को शहद में लपेटते हुए उसके पापा बोले " अगर तुमने ये बेट बाल खेल कर सचिन बनना है तो जाओ लेकिन अगर सचिन नही बन सकते तो क्यों इस पर समय बर्बाद कर रहे हो" उसके पिताजी की विचारधारा का बोध होते ही हम बिना अधिक समय गवाए खेलने चल पड़े। लगभग 10 वर्ष बाद, वर्तमान में वह लड़का एक साधारण सी नौकरी के लिए पलायन कर चुका है उसके पिताजी काफी समय तक उस दुकान को उसी अवस्था मे चलाने के बाद चल बसे और फिलहाल उसका बड़ा भाई उस दुकान को संभाल रहा है। न तो उसके पिताजी खुद व्यापार में अम्बानी सरीखे बने और न ही अपने बच्चों को बना पाए, लेकिन बच्चों के कई अरमान उनके पिताजी जी की हिदायतों की भेंट चढ़ गए। बहुत से बुजुर्ग है जो हिदायतें तो बाँटते फिरते है पर शायद ये भूल जाते है कि वो हिदायतें पहले खुद पर लागू होती

सेलेब्रिटी

एक चेहरा जो जनमानस के लिए खास चेहरा बन जाता है वो सेलेब्रिटी कहलाता है और सेलेब्रिटी बनते ही उसके पास कई तरह के ऑफर आने लग जाते है जिस से उस सेलेब्रिटी की आमदनी बढ़ जाती है। ये आमदनी तब तक चलती रहेगी जब तक वो चेहरा खास बना रहे, चेहरे की खासियत खत्म होते ही आमदनी के स्रोत सूखने लग जाते है। एक अच्छी आमदनी शुरू होते है एक चालाक सेलेब्रिटी अपनी एक टीम तैयार करता/करती है जिसे PR Team कहा जाता है, जिसका काम होता है उस सेलेब्रिटी को जनता के बीच मे अच्छे से प्रस्तुत करना वो PR टीम फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे चर्चित सोशल नेटवर्किंग साइट्स अपनी सेलेब्रिटी के लिए अच्छे अच्छे सन्देश बना कर या बनवा कर प्रचारित करते है, इसके लिए बाकायदा या तो नया ग्रुप तैयार किया जाता है या किसी अच्छे खासे ग्रुप को खरीद कर अच्छी सूचनायें प्रेषित की जाती है। ये PR टीम सिर्फ अपनी सेलेब्रिटी को ही चर्चित नही रखता बल्कि विरोधियों को भी बदनाम करता है। तो जो पोस्ट आप फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसी जगहों पर देखते हो और फिर अपनी भावनाओं को उस से जोड़ कर उसमें बह जाते हो वो सब माया से उत्पन्न की गई भावनाय

चश्मा

फेसबुक पर दो तरह की प्रजातियाँ इस कद्र जुटी पड़ी है जैसे गन्ने के जूस के ठेले के पास भिनभिनाती हुई मक्खियाँ, एक मोदी विरोधी और दूसरी मोदी समर्थक। दोनो एक दूसरे के ऊपर आरोप प्रत्यारोप लगाने मे इस कद्र व्यस्त है कि अगर ये काम उनसे छीन लिया जाए तो कहीं एकांकीपन उनको लील न जाये। हालाँकि दोनो प्रजातियाँ एक दूसरे के विरुद्ध कार्य कर रही है लेकिन कार्यप्रणाली दोनो की एक समान है। जैसे कि... दोनो की पोस्ट ख्याली पुलाव होते है जिनका वास्तविकता से कोई लेना देना नही होता। दोनो की मानसिकता मक्खी की तरह होती है, पूरा शरीर छोड़ कर केवल घाव या चीनी पर केंद्रित रहती है। दोनो ही ऐसे ग्रुप के सपोर्टर होते है जो या तो पूर्ण रूप से खिलाफत करेंगे या फिर यशगान। दोनो की विचारधारा one way ट्रैफिक होता है। या तो सिर्फ अच्छा दिखेगा या फिर सिर्फ बुरा। दोनो का अपना दिमाग नही होता, जैसा उनके ग्रुप द्वारा दिखाया जाता है वह सत्य मान लिया जाता है, बाकी सब सफेद झूठ। दोनो को एडिटेड फ़ोटो या खबर पहचानने की क्षमता नही होती। और ऐसी ही अन्य कई। बचिए इनसे, निकाल बहार करिए इनको अपने संपर्क क्षेत्र  से, वरना आपकी नजर भ

सही गलत

मेरा जानकार अगर सफदरजंग जैसे किसी बड़े अस्पताल में काम करता हो और अगर मे उनसे एक डॉक्टर का अपॉइंटमेंट लेने, एडमिट होने या टेस्ट करवाने के लिए बोलता हूँ और वो मदद करने की बजाय मुझे नियम से चलने की सलाह दे तो...? अगर मेरा कोई रिश्तेदार ट्रैफिक पुलिस में है और ट्रेफिक नियम तोड़ने हुए पकड़े जाने पर चालान से बचने के लिए में उनसे मदद मांगता हूँ और वो मुझे फिर से मदद करने की बजाय नियम से चलने की सलाह दे तो...? या फिर मेरा कोई रिश्तेदार राजनीति में हो और किसी जुर्म से बचने के लिए में उनसे मदद माँगू और फिर नियम पर चलने की सलाह मिले तो...? भाड़ में जाये ऐसे रिश्तेदार जो मुसीबत में काम न आए, बड़े आए सलाह देने वाले। अरे जानता तो में भी सब कुछ हूँ  कि सही क्या है और गलत क्या है, लेकिन ये सही गलत से दुनिया थोड़े चलती है। मेरे को मतलब अपने काम निकल जाने से है। इस सही या गलत से नही। लेकिन एक बात बोल दूँ। ये सरकारी कर्मचारी, डॉक्टर, पुलिसवाले, नेता, मंत्री इत्यादि सब के सब एक नंबर के चोर है और इस देश का कुछ नही हो सकता।

मुखोटा

आज के युग मे कहने के लिए एक मानव के पास फोनबुक, फेसबुक, ट्विटर के अन्दर अनगिनत दोस्त है फिर भी उसकी उत्कंठा हमेशा किसी नए दोस्त की तलाश मे रहती है। किसी ऐसे दोस्त की तलाश मे जिसे वो शब्दों या दिखावे वाला दोस्त नहीं हमदम वाला दोस्त कह सके, जो उसके जज्बातों, परेशानियों और खुशियों को समझ सके। वो जैसा है वैसा समझ कर दोस्त माने। ऐसा नहीं है की ऐसे लोगों की दुनिया में कमी है लेकिन वास्तविकता मे इंसान जो है या जैसा है वैसा बन के नहीं रहता। उसे लगता है उसका असली व्यक्तित्व उतना आकर्षित नही है जिससे से वो दूसरे लोगों को आकर्षित कर सके,  इस आकर्षण के पीछे अनगिनत उद्देश्य हो सकते है। जब उसे लगता है कि वो जैसा है वैसा ही रहेगा तो उसे वो तवज्जो नहीं मिलेगी जो की एक नकली आकर्षण वाला मुखोटा लगाकर मिलेगी, इसके चलते वो अनगिनत झूठे मुखोटे लिए घर से निकलता है और उसी की तरह नकली मुखोटे धारण किए लोगों से आकर्षित हो जाता है या आकर्षित करता है, लेकिन कुछ समय मे ही जब उसे नीरसपन, स्वार्थप्रस्ती और परायेपन का एहसास होता है तो फिर हमदम वाले दोस्त की तलाश मे निकल पड़ता है जो की निरंतर चलती रहेगी जब तक हम खुद अप

कथा एक गाँव की।

एक गाँव मे दो गुट थे जो कि एक दूसरे के घनघोर दुश्मन थे, गाँव के आधे लोग एक तरफ और आधे लोग दूसरी तरफ थे। जब भी युद्ध होता कुछ घरों के लोग अपने परिवारों सहित निजी फायदे के चलते विपक्षी गुट के साथ मिल कर अपने गुट को हरा देते और अगले ही युद्ध मे विजेता की तरफ के कुछ परिवारों के मुखिया अपने परिवारों सहित विपक्ष में मिल कर  पहले गुट को हरा देते। विजेता गुट के द्वारा किये गए कार्यों को दूसरा गुट अगली बार जीतने पर या तो गलत साबित कर देता या अपने हिसाब से बदल देता। छोटे मोटे बाहरी गुटों ने भी इस गाँव पर कब्ज़ा करने हेतु हर बार युद्ध मे हाथ आजमाने की कोशिश की पर हमेशा मुँह की खाई या यूं कहें कि दोनों गुटों के समर्थकों ने उनको मुँह नही लगाया। ये सिलसिला बदस्तूर सालों साल सुचारू रूप से क्रमवार चल रहा था, हमेशा एक बार पहला गुट जीत जाता तो दूसरी बार हार जाता। एक गुट जिसका दूर के एक क्षेत्र में बहुत वर्चस्व था उसने जब इस गांव में दस्तक दी तो पहले के चिर-परिचित गुटों ने इसको हल्के में लिया क्योंकि इतिहास में ये बात दर्ज हो रखी थी कि बाहरी गुटों को इस गाँव के लोग कभी घास नही डालते... लेकिन हुआ चमत्

कानून का डर

कौन कहता है की लोगों मैं पुलिस का डर नहीं है? एक आम आदमी के लिए सबसे डर वाले नाम है "पुलिस, थाना, कोर्ट, कचहरी" और यही नाम उपद्रवियों के लिए "कान पर जू तक न रेंगना" वाली कहावत को सच साबित करते है। इसके पीछे एक ही कारण है और वो यह है की पुलिस का जनता के प्रति रवैया, जो की कागजों मैं मित्र के रूप मैं प्रस्तुत किया जाता है पर असल जिंदगी मैं एक खौफ पैदा करता है। और इसी खौफ के चलते एक आम आदमी किसी घटना के चलते पीड़ित की मदद करने की बजाय वहां से खिसक जाने मैं ही अपनी भलाई समझता है, उसके खिसकने के पीछे मदद देने से कतराना नहीं बल्कि पुलिस द्वारा किये जाने वाले मदद हेतु अत्याचार होता है, जो की दुर्घटना ग्रस्त के लिए जानलेवा साबित हो सकता है और कई मामलो मैं हो भी जाता है। पुलिस की कार्य प्रणाली और हमारे आम आदमी का आम होना या यूँ कहे की जागरूक न होना या हिम्मत की कमी या परिस्थितियों की वजह से ये सब होना कब तक चलेगा किसी को पता नहीं, बस दिन कट गया वही काफी है। कल की कल सोचेंगे पर कल जब भी आता है आज बन जाता है और आज हमेशा कल पर टाल दिया जाता है। बहुत कुछ नेताओं पर निर्भर है