धुंधली यादें


हमारी क्रिकेट मंडली बेसब्री से उस लड़के का इंतज़ार कर रही थी जो अपने पापा की परचून की दुकान में उनका हाथ बंटा रहा था।

हमारे द्वारा किये गए जल्दी चलने के कई गुप्त इशारों के बाद खेलने की ललक और सही मौके को देखकर उसने हिम्मत जुटा कर अपने पापा से कहा "पाप में बेट बॉल खेलने जाऊँ?"

कड़वे शब्दों को शहद में लपेटते हुए उसके पापा बोले " अगर तुमने ये बेट बाल खेल कर सचिन बनना है तो जाओ लेकिन अगर सचिन नही बन सकते तो क्यों इस पर समय बर्बाद कर रहे हो"

उसके पिताजी की विचारधारा का बोध होते ही हम बिना अधिक समय गवाए खेलने चल पड़े।

लगभग 10 वर्ष बाद, वर्तमान में वह लड़का एक साधारण सी नौकरी के लिए पलायन कर चुका है उसके पिताजी काफी समय तक उस दुकान को उसी अवस्था मे चलाने के बाद चल बसे और फिलहाल उसका बड़ा भाई उस दुकान को संभाल रहा है।

न तो उसके पिताजी खुद व्यापार में अम्बानी सरीखे बने और न ही अपने बच्चों को बना पाए, लेकिन बच्चों के कई अरमान उनके पिताजी जी की हिदायतों की भेंट चढ़ गए।

बहुत से बुजुर्ग है जो हिदायतें तो बाँटते फिरते है पर शायद ये भूल जाते है कि वो हिदायतें पहले खुद पर लागू होती है फिर दूसरों पर।

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