गूँगा समाज

रोजाना की तरह पेट्रोल भरवाने के लिए पंप पर लाइन में लगा और अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगा, तीन मोटरसाइकिल मेरे से पहले थी और मेरा चौथा नंबर।

लाइन वालों मे से पेट्रोल एक मोटरसाइकिल का भरा जाता तो साइड से आकर दो भरवा के चले जाते, जब तक मेरा नंबर आता तब तक साइड से आकर पाँच लोग पेट्रोल भरवा चुके थे और छठा भरवा रहा था।

अटेंडेंट को बोला की जो साइड से आते है उनको पेट्रोल क्यों देते हो, तो वो बोला की "अब हम किस किस से झगड़ा करे, हर कोई लड़ने के लिए तैयार होता है, इसलिए हमने बोलना ही बंद कर दिया, जिसको दिक्कत होगी खुद बोलेगा"।

मैंने कहा की "फिर तो लाइन मे लगने का कोई फायदा ही नही है, जब आपने सबको पेट्रोल दे देना है, चाहे वो लाइन मे हो या नही। अगली बार से मे भी लाइन में नही लगूँगा"

कल फिर उसी पेट्रोल पंप पर पहुँचा, चार लोग लाइन पर थे, हिचकते हुए साइड से लाकर मोटरसाइकिल सबसे आगे वाले के साथ खड़ी कर दी और तुरंत ही पेट्रोल भर दिया गया। न तो अटेंडेंट ने कुछ बोला न ही लाइन में लगे लोगों ने।

सब कुछ सामान्य रूप से निपट जाने के बावजूद में खुद को असामान्य महसूस कर रहा था, मेरी अंतरात्मा थी की जो मुझे दोषी महसूस करा रही थी।

ये कैसा समाज विकसित हो चुका है की आपका हक़ आपकी आंखों के आगे से छीना जा रहा है और आप हो की चूँ तक भी नही कर करे।

ऐसी परिस्थितियों में कौन सामान्य नागरिक बन कर जीना चाहेगा, कौन है जो नियमों का पालन करेगा?

लोगों के अंदर किस चीज़ का डर इस कद्र व्याप्त है की जो उन्हें अपने ही हक़ के लिए आवाज उठाने से रोक रहा है?

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