MP3 (मेरा पहला पहला प्यार)

दिल्ली के सरकारी स्कूल मे आठवीं कक्षा के B सेक्शन मे चौथा पीरियड चल रहा था और उसी कक्षा की आखिरी सीट पर बैठे हुए हम तीन दोस्त (सुनील, धर्मेंद्र और मैं) बड़े ही ध्यान से कक्षा मे चल रहे विषय से बहुत दूर हाल ही मे रिलीज़ हुई 'हम' फ़िल्म में अमिताभ बच्चन द्वारा बोले गए डायलॉग "दुनिया में दो तरह के लोग होते है" की विवेचना में मग्न थे।

तभी नज़र आठवीं A की कक्षा की तरफ गयी और पाया की "सुमन" हमारी तरफ देखकर मुस्कुरा रही है। पूछो या न पूछो बता देता हूँ की "सुमन" पूरे स्कूल की क्रश थी और "विशाल" उस पर बुरी तरह मोहित था, लेकिन बहुत कोशिश करने के बाद भी जब दाल नही गली तो फिर उसने अपनी कोशिशों को विराम देकर इस रिश्ते को भाई-बहन का रूप देकर खत्म कर दिया।

जी हाँ वही "सुमन" हमारी तरफ देखकर मुस्कुरा रही थी, जिसकी हमने कल्पना भी नही की थी और इसी के चलते उसकी इस हरकत को हमने बहुत ही साधारण रूप में लिया।

लेकिन जब वही मुस्कुराहट हमे लंच के बाद दुबारा देखने को मिली, दूसरे दिन भी और तीसरे दिन भी तो हम तीनो को कुछ-कुछ होने लगा।

हम तीनो का ध्यान खेल, फ़िल्म, नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव इत्यादि से हटकर एक ही जगह केंद्रित हो गया था और वो थी सुमन और उसकी मुस्कान।

मार खा के स्कूल जाने वाले हम अब नहा धोकर खुशी-खुशी स्कूल जाने लगे। समय से पहले पहुंच कर सुमन का इंतज़ार करते कि वो कब आएगी, जैसे ही वो दूर से आते हुए दिख जाती उसे देखकर भाग कर क्लास में पहुँच जाते। किसी टीचर के न आने पर समिल्लित कक्षा का होना मानो अंतरिक्ष मे जाके चाँद को नजदीक से देखने जैसा था। जिस दिन वो नही आती वो दिन काटना मुश्किल हो जाता।

सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन तभी ध्यान आया की अबे वो तो अकेली है और हम तीन, ये तो प्रकृति के विरुद्ध हो रहा है।

बात कायदे के साथ-साथ प्रकृति के संतुलन को ठीक करने की भी थी। हमारे पास तो कोई विकल्प था नहीं तो काफी सोच विचार के बाद ये तय हुआ की एक पत्र लिखा जाए और उस से पुछा जाए की आप किस को पसंद करते हो।

निर्णय तो ले लिया गया पर अब पत्र कैसे लिखा जाता है ये समस्या खड़ी हो गई। सुनील ने मोर्चा संभाला और बोला तेरी लिखाई अच्छी है तो लिखेगा तू और लिखना क्या है ये में बताऊंगा बाकी पत्र को सुमन तक पहुचाने का काम धर्मेन्द्र का होगा।

फैसला हो गया और पत्र लिखा गया जो कुछ इस तरह था की....

प्यारी सुमन,

आप हमको बहुत अच्छी लगती हो और आपकी मुस्कान तो उस से भी ज्यादा। हम तीनो को आप से प्यार हो गया है और हमें लगता है की आप भी हमसे प्यार करती हो, लेकिन हमें ये नहीं पता की आप हम में से ज्यादा प्यार किस से करती हो।

अगर आप हमें बता दोगी की आप हम से किसे ज्यादा प्यार करती हो बाकी के दो बीच में से हट जायेंगे।

धन्यवाद!

आपके प्रेमी

(नाम नही लिखा था लेकिन सुनील ने अपनी कला का परिचय देते हुए एक दिल बनाया और उसको आर-पार करता हुआ एक तीर भी बना डाला।)

पत्र लिखने के बाद तय हुआ की धर्मेंद्र स्कूल से बाहर निकल कर मौका देखकर पत्र सुमन को दे देगा।

छुट्टी हुई और गेट के रास्ते से बच्चों की भीड़ बाहर निकलने लगी, धर्मेंद्र अपने काम को अंजाम देने सुमन के पीछे जा चुका था और हम आराम से आखिर में बाहर निकले, बाहर निकलते ही धर्मेंद्र खड़ा दिखा और सुमन दूर जाती नज़र आई।

हम - अबे तू यहाँ क्या कर रहा है, जा न उसे दे के आ।
धर्मेंद्र - दे दिया है मैंने।
हम - अच्छा! उसने ले लिया और कुछ नही कहा?
धर्मेंद्र - अरे मैंने स्कूल गेट से बाहर निकलते समय पीछे से उसके बस्ते में घुसा दिया।

अब हम तीनों को चिंता सताने लगी की कहीं वो पत्र उसके घर वालों के हाथ न लग जाए, होमवर्क करने के लिए वो अपनी कॉपी-किताब बाहर निकाले और साथ मे पत्र भी लिपटा हुआ चला आए और उसके घर वाले भी वहीं पर हो और पूछें की ये क्या है तो बस लग गयी लंका समझो।

कोड़ पर खाज वाली बात ये की ये घटना शनिवार को हुई और चिंता से ग्रसित होने के लिए बीच में ईतवार का पूरा दिन और था।

सकारात्मकता तो बाबा भारती के घोड़े पर चढ़ कर बहुत दूर जा चुकी थी और मन खडग सिंह के भय की आशंका से विचलित हुआ जा रहा था।

सोमवार का सूर्य अपने साथ अनगिनत ललिमाओं और आकांक्षाओं के साथ उदय हुआ।

समय से काफी पहले स्कूल पहुँचे, हिम्मत नही हुई की रास्ते में जाकर देखें की सुमन आ रही है की नही। वो आई और प्रार्थना लाइन मे उसकी एक झलक दिखी और किसी तरह का कोई भाव नही दिख। मिश्रित भाव हमारे दिल-दिमागों मे कौंधे।

पहला पीरियड शुरू हुआ और हम तीनो परिणाम की आरज़ू मे खुद को नार्मल रखने की कोशिशों से जूझ रहे थे। कुछ देर बाद देखा की सुमन स्कूल की दहशत कही जाने वाली गुप्ता मैडम के साथ प्रिंसिपल के कक्ष की तरफ बढ़ रही थी। अनहोनी की आशंका से हम तीनों का दिल डूबा जा रहा था, पर एक उम्मीद की किरण ये भी थी की शायद किसी अन्य कार्य हेतु वो प्रिंसिपल कक्ष में गए हो।

जल्द ही एक बच्चा हमारी क्लास में आया और हम तीनों को प्रिंसिपल कक्ष में बुलावे की बात कह गया। शरीर सुन्न और शरीर में उगे हुए बाल और भविष्य में उगने वाले बाल भी त्वचा के अंदर खड़े हो गए। आस-पास की जगह और लोग किसी विचित्र ग्रह से महसूस होने लगे, शरीर के मसानों ने शर्त लगा कर पसीना उगलना शुरू कर दिया।

कुछ क्षणों मे हमने खुद को प्रिंसिपल कक्ष में पाया, जहाँ एक और सुमन अपनी आंखों से सहानूभूति रहित पानी बहा रही थी और दूसरी तरफ प्रिंसिपल मैडम के हाथों में हमारा असफल हो चुका प्रोजेक्ट लहलहा रहा था।

"इसीलिए आते हो तुम स्कूल, यही सिखाया जाता है तुम्हे?"

चटाक चटाक, चटाक चटाक, चटाक चटाक की आवाज़ के साथ हम तीनों के गालों पर छाया सुमन के प्यार रंग लाल होकर दम तोड़ने लगा।

"चलो तीनों इसको बहन बोलो"

गुप्ता मैडम के इन शब्दों को सुनते ही विशाल का चेहरा हमारे आगे उभर आया की ना जाने किन हालातों से गुजर कर उसने सुमन के भाई की पदवी अर्जित करी।

हमें एहसास था की ना-नुकुर किया तो गालों की लाली जल्द ही शोलों मे तब्दील कर दी जाएगी, इसलिए बिना किसी अहम या अकड़ के चुपचाप तीनों ने सुमन को बहन बोल दिया।

ये तो सिर्फ प्रिंसिपल के कक्ष का लिहाज़ था, गुप्ता मैडम का खौफ देखना अभी बाकी था।

प्रिंसिपल कक्ष की चारदीवारी के अंदर के चांटों का असर सिर्फ शरीर की ऊपरी त्वचा पर हुआ था लेकिन अपनी कक्षा की तरफ कूच करते हुए सब बच्चों के बीच गुप्ता मैडम द्वारा होने वाला शारीरिक और मानसिक शोषण का वृतिचित्र हमारे शरीर में सिहरन पैदा करने लगा।

अपनी कक्षा में पहुंच कर गुप्ता मैडम द्वारा आज पाठ्यक्रम से हटकर जो हमारी छीछालेदर  क्लास का आयोजन हुआ उसका लुत्फ पूरी क्लास ने जमकर उठाया। "देखो इन नमूनों को, यही सिखाया है इन के माता-पिता ने, यही करने आते है ये स्कूल जैसे अनेक तानों के साथ छड़ी के कई कोण हमारे शरीर पर उकेरे गए और उसके बाद फरमान सुना दिया गया कि कक्षा के बाहर लंच तक मुर्गा बन जाओ।

अब तक राहत की बात ये थी कि घरवालों को शामिल करने का जिक्र अब तक नही आया था जो कि मरुस्थल में सहारा जैसा प्रतीत हो रहा था।

सुमन के प्रति नफरत का बाँध खतरे के निशान से ऊपर बह रहा था और गुप्ता मैडम द्वारा की गई जलालत हमें चुल्लू भर पानी मे डूबने योग्य बना चुकी थी।

बहरहाल कक्षा के अंदर पढ़ाई चालू और बाहर पोल्ट्री फार्म खुल चुका था। पीरियड खत्म होने पर दूसरी मैडम आती और कक्षा के बाहर तैनात मुर्गों का कारण पूछती तो आश्चर्य चकित होती की ये बीमारी इस उम्र के बच्चों को भी अपने शिकंजे में लेने लग गयी, ये सब आजकल के सिनेमा और आशिक़ी जैसी फिल्मों का परिणाम है।

लंच का समय यानी हमारे मुर्गे बनने का सफर बस समाप्त ही होने वाला था कि तभी धर्मेन्द्र की बहन उसका लंच लेकर आ गयी और भाई को मुर्गा बना हुआ देखकर उसका सबब पूछा। गुप्ता मैडम ने मोमो की चटनी की तरह तीखा जवाब दिया कि लड़कियों को चिट्ठी लिखता है तेरा भाई। उसकी बहन इतना सुनते ही बिना लंच दिए ही वापस चली गयी। मार और बेइज़्ज़ती को कपड़ों से झाड़ कर हम तीनों ने लंच खाया और खेलने में मशगूल हो गए।

लंच के बाद कक्षा सुचारू रूप से चलने लगी और हम तीनों अपनी बदल चुकी दुनिया मे इस तख्तापलट का कारण खोजने की कोशिश करने लगे लेकिन किसी निष्कर्ष तक नही पहुँच पाए और कर्ता यानी सुमन से पूछने या उससे नज़रें मिलने का साहस नही जुटा सकते थे। स्कूल खत्म होने तक लगभग पूरा मामला ठंडा पड़ चुका था।

अगले दिन धर्मेन्द्र नही आया, बच्चे अक्सर लंच के बाद स्कूल के बाहर खेलने और खोमचे वालों से कुछ खाने पीने के लिए निकल जाते थे लेकिन बस्ता स्कूल में ही रहता था ताकि कोई घर या कहीं और न चला जाये।

में और सुनील लंच के बाद स्कूल से बाहर खेलने निकले और तभी मलकीत सिंह भागता हुआ आया और बोला "तुम दोनों को सुमन का भाई ढूंढ रहा है और गेट के बाहर ही खड़ा है"।

इतना सुनने के बाद हमारा शरीर भय से जड़वत हो गया और दिमाग शरीर को छोड़ कर हड़ताल पर चला गया। प्यार करने का ये जुर्म अंतहीन होता जा रहा था।

लंच ब्रेक बंद होने की घंटी की आवाज़ से आत्मा शरीर में वापस प्रवेश करी तो कदम गेट की तरफ बढ़ने लगे, क्योंकि बस्ता तो अंदर ही था और बिना बस्ते के घर नही जा सकते थे। गेट के आखिरी मोड़ पर पहुँच कर छुप कर देखा तो बच्चे गेट के अंदर जा रहे थे और एक लड़का मलकीत को पकड़ कर खड़ा था ताकि वो हमें पहचान कर उसको बता सके कि उसकी बहन को खत लिखने वाले गुंडे कौन थे।

ज्यों-ज्यों समय बीतता गया देर से आने पर अंदर मैडम से पीटने का और बाहर भाई से पीटने का डर हमारे मन-मस्तिक पर हावी होने लगा।

झांकते हुए जैसे ही सुमन के भाई की नज़र हम पर पड़ी, उसने कहा "अरे आ जाओ डरो मत, कुछ नही कहूँगा"।
दूसरा कोई विकल्प तो था ही नही और जिस स्वर में उसने बात कही थी उस पर यकीन हो रहा था कि कुछ नही होगा।

"ज्यादा आशिक़ी सवार हो गयी है तुम पर, खुद को आशिकी का   राहुल राय समझ रहे हो" चटाक चटाक की आवाज़ उत्पन्न करते हुए दो-दो चांटे हमारे गालों ने और गटक लिए इस दिल के चक्कर मे।
तीसरे (धर्मेन्द्र) के बारे में पूछा गया तो बताया कि वो आज छुट्टी पर है। तो दूसरे दिन आके देखने की धमकी दी गयी।
सुमन के आस-पास भी मत दिखना वरना अंजाम बहुत बुरा होगा कि नसीहत के साथ पहले पहले प्यार में एक अनुभव और जुड़ गया।

धर्मेन्द्र दूसरे दिन भी नही आया और तीसरे दिन भी नही।
चौथे दिन जब आया तो एक हाथ पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था जो हाथ टूटने का परिणाम था। पूछने पर ज्ञात हुआ कि उसकी बहन ने उस दिन जाके सीधा माँ को बताया की भैया ने स्कूल में किसी लड़की को पत्र लिखा और स्कूल में मुर्गा बना हुआ है।

शाम को ये बात उसकी माँ ने पिता को बताया तो पिता ने बेल्ट से पहले उसके प्यार का भूत उतारा फिर सीढ़ियों के पास ले जा कर घर से बाहर निकलने की धमकी के साथ एक लात मारी जिसके परिणाम स्वरूप ये सफेद प्लास्टर रूपी पहले पहले प्यार का पदक प्राप्त हुआ।

धर्मेन्द्र के प्यार की गणना का टोटल उस समय गलत साबित हुआ जब हमने बताया कि सुमन से प्यार के जुर्म का एक हिस्सा अभी उसके भाई के द्वारा और प्राप्त होना है। (हालाँकि सुमन का भाई फिर नही आया।)

हम इंडियन एयरलाइन्स कॉलोनी में रहते थे और सुमन एयर इंडिया कॉलोनी में।

वह स्कूल सिर्फ आठवीं कक्षा तक ही था और कुछ महीनों में ही सब परीक्षा पास करके RK Puram के विभिन्न सरकारी स्कूलों में चले गए। ज्यादातर सेक्टर 7 और 5 मे और में सेक्टर 6 मे।

स्कूल बदले, दोस्त बदले और 1-2 साल में सबकी रहने की जगह भी बदल गयी और उसके बाद सब अजनबी हो गए।

#justnegi

Comments

Popular posts from this blog

Personality

गढ़वाल और जातपात

Traffic Rules